मेट्रो का नाम हमारे लिए काल्पनिक था। मेट्रो रेल की तरह है। दिल्ली में इसे साकार रूप देने के लिए कार्य सुचारु रूप से गति से होने लगा। स्तंभ खड़े होने लगे। जैसे-जैसे स्तंभ खड़े होते गए, स्तंभों के ऊपर पटरी टाँग दी गई। देखते ही देखते ऊपर ही स्टेशन बनने लगे।
इस तरह स्तंभ, स्तंभों के ऊपर पटरी, स्टेशन, मेट्रो खड़ी हो गई। जनता के लिए सब कुछ आश्चर्य। लोगों को लगने लगा कि दिल्ली की बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण यातायात की व्यवस्था चरमरा रही थी, वह व्यवस्थित हो जाएगी।
दिल्ली की जनसंख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है, उसके अनुरूप वाहनों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, जिसके कारण वाहनों की गति 10-15 कि. मी. प्रतिघंटा तक सिमट गई है? मेट्रो स्टेशनों की सुव्यवस्था को भी देखकर यात्री हतप्रभ होते हुए सुखद आश्चर्य का अनुभव करते हुए यात्रा करता है। यात्री टिकट लेकर सीढ़ियों से ऊपर पहुँचा नहीं कि मेट्रो आ गई। मेट्रो से प्रतीक्षा की तड़प भी समाप्त हो गई। बस यात्रा में जहाँ घंटों का समय लगता था, भीड़ और धक्का-मुक्की में श्वांस ऊपर को आती थी और भी अनेक परेशानियाँ थीं, उन सबसे छुटकारा मिल गया।
जिस दिन मेट्रो की गाड़ी को हरी झंडी दिखाई गई, उस दिन मेट्रो में यात्रा के लिए मुफ्त प्रबंध किया गया था। आश्चर्यजनित इच्छा के बिना किसी गंतव्य स्थान के मेट्रो की यात्रा का आनंद लेने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी और बहुत से लोग उस दिन यात्रा का आनंद लेकर वापस हो गए थे। मैंने भी मेट्रो-स्टेशन, ‘जहाँ प्रवेश पाने से लेकर, निकलने तक सभी को स्वचालित दरवाजों का सामना करना पड़ता है’ मन में अनपेक्षित भय लिए यात्रा की।
स्टेशन का शांत वातावरण, एकदम चमकता हुआ साफ़-सुथरा, सजा हुआ देखकर आश्चर्य से दाँतों तले अँगुली दबा कर रह गया। टोकन लेकर मैं आगे बढ़ा। छोटे से गेट पर बने विशेष स्थान पर जैसे ही टोकन रखा, तभी खटाक से प्रवेश द्वार खुला और मैं स्वचालित सीढ़ियों से जा चढ़ा। ऊपर के सौंदर्य को जी भरकर देख भी न पाया था तब तक तो मेट्रो आ गई। मेट्रो-रुकी, माइक से सूचना मिल रही थी, यात्रियों को सावधान किया जा रहा था।
मेट्रो का दरवाजा खुला और सभी यात्रियों को चढ़ता देख मैं भी चढ़ गया। स्वयमेव ही मेट्रो का दरवाजा बंद हुआ। मेट्रो के अंदर भी प्रत्येक स्टेशन की और सावधानियाँ बरतने की सूचना मिल रही थी, साथ ही सूचनाओं, स्टेशनों की स्वचालित लिखित सूचनाएँ हिंदी-अंग्रेज़ी में मिल रही थीं।
विश्व की सुप्रसिद्ध आधुनिक यातायात की सेवा में मेट्रो ने जो पहचान बनाई है, वह पूर्व में अप्रत्याशित ही थी, मात्र कल्पना थी, किंतु वह आज साकार रूप में है। ऐसी यात्रा के बारे में जापान, सिंगापुर देशों में सुनते थे तो परियों की कहानी जैसा लगता था। आज यह अपने देश की राजधानी महानगरी दिल्ली में सभी प्रकार की सुविधाओं से संपन्न दिल्ली में दिखाई दे रही है। भूमिगत है। तो कहीं आकाश में चलती दिखाई देती है।
यात्रियों की सुविधाओं के लिए सभी व्यवस्थाएँ हैं, भूमिगत स्टेशनों को पूर्णत: वातानुकूलित बनाया गया है। ऐसी सुविधा संपन्न मेट्रो के लिए दिल्ली सरकार और केंद्रीय सरकार ने संयुक्त रूप से संबंधित संस्था में सन 1995 में पंजीकरण करवाया और 1996 में 62.5 कि.मी. दूरी के लिए मेट्रो परियोजना को स्वीकृति मिल गई। दिसंबर, 2002 में परियोजना को साकार रूप मिल गया।
24 दिसंबर, 2002 को प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हरी झंडी दिखाई और मेट्रो चल पड़ी। आज मेट्रो की उपयोगिता और सफलता को देखकर इस परियोजना ने पैर पसारना शुरू कर दिया है। कई रूट बने और शुरू हो गए। हैं और नए-नए रूटों पर प्रगति से कार्य चल रहा है। अब तो दिल्ली महानगर के समीप बसे नगरों को छू लिया है। प्रांतीय सीमाओं का भेद मिट गया है।
अब यह मेट्रो नोएडा में निसंकोच प्रवेश कर गई है। इतना ही नहीं, मेट्रो के अस्तित्व को देखते हुए अन्य नगरों से भी इसके लिए माँगे उठने लगी है।
मेट्रो ने अपनी अलग पहचान अपना अलग अस्तित्व बनाया है। इसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बहुत से प्रबंध किए गए हैं। सामान्य जगहों की तरह मेट्रो में अभद्रता देखने को मिलती है। अभद्रता करने वालों के लिए दंड व्यवस्था भी की गई है। यह राष्ट्रीय संपत्ति सचमुच में अपनी संपत्ति प्रतीत होती है। इसके सौंदर्य को बनाए रखने के लिए यात्रियों के लिए निर्देश प्रसारित किए जाते हैं। इस तरह मेट्रो की यात्रा सुखद यात्रा है।